स्वामी प्रेमानंद जी महाराज एक श्रद्धेय आध्यात्मिक हस्ती हैं, जिन्हें राधा-कृष्ण के प्रति उनकी गहरी भक्ति और भक्ति योग के सिद्धांतों पर आधारित प्रेरणादायक उपदेशों के लिए पहचाना जाता हैं। उन्होंने अपना जीवन प्रेम, शांति और आत्म-साक्षात्कार के संदेश को फैलाने के लिए समर्पित कर दिया है, जिसमें भक्ति सेवा का अटूट महत्व है।

स्वामी प्रेमानंद जी महाराज का जन्म एक साधारण, लेकिन आध्यात्मिकता से भरपूर परिवार में हुआ था। महाराज का जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर में सरसौल के अखरी गांव में हुआ था। प्रेमानंद जी का बचपन का नाम अनिरुद्ध कुमार पांडे था। उनके पिता का नाम श्री शंभू पांडे और माता का नाम श्रीमती रामा देवी था। मात्र 13 वर्ष की आयु में, वे अध्यात्म से प्रभावित होकर घर छोड़कर सन्यासी बन गए। घर छोड़ने के बाद वह कुछ समय नंदेश्वर धाम में रहे और फिर वाराणसी पहुँचे। वहाँ वह दिन में तीन बार गंगा में स्नान करते और तुलसी घाट पर पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर भगवान शंकर की आराधना करते थे। उनकी आजीविका भिक्षा पर निर्भर थी, कभी भोजन मिल जाता तो खा लेते, नहीं तो गंगाजल पीकर सो जाते थे।
भीषण ठंड या बारिश के बावजूद उनका गंगा स्नान का नियम अटूट था। जब पहनने के लिए भगवा वस्त्र नहीं होते थे, तो बोरी को वस्त्र के रूप में धारण करते थे। उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए दीक्षा ली, जिसके बाद उनका नाम आनंदस्वरूप ब्रह्मचारी रखा गया। उनके गुरु श्री गौरांगी शरण जी है।, और वह लगभग दस वर्षों तक उनके सानिध्य में रहे।
प्रेमानंद जी का शिव भक्ति का प्रारंभिक जीवन:
प्रेमानंद जी महाराज, जो आज राधा-कृष्ण की भक्ति में समर्पित हैं, ने अपनी आध्यात्मिक यात्रा का आरंभ भगवान भोलेनाथ (शिव) की भक्ति से किया था। उनका प्रारंभिक जीवन बनारस (वाराणसी) में बीता, जो कि शिव की नगरी के रूप में प्रसिद्ध है। यह पवित्र शहर गंगा के किनारे स्थित है और हिंदू धर्म में विशेष आध्यात्मिक महत्त्व रखता है।
बनारस में साधुओं के साथ जीवन:
प्रेमानंद जी महाराज ने किशोरावस्था में ही घर छोड़कर बनारस की ओर रुख किया। गंगा के किनारे वे विभिन्न साधु-संतों के संग रहने लगे। इन साधुओं का जीवन सादगी, भक्ति, और तपस्या से भरा हुआ था, और उनके साथ रहते हुए प्रेमानंद जी ने भी शिव की आराधना में गहन साधना की। यहाँ उन्होंने भगवती गंगा की पवित्र धारा के साथ अपने आध्यात्मिक जीवन का विकास किया और शिव को अपनी भक्ति का केंद्र बनाया।
प्रेमानंद जी महाराज का बनारस में शिव भक्ति के साथ आरंभ हुआ जीवन उन्हें गहन आध्यात्मिकता की ओर ले गया। गंगा के किनारे साधु-संतों के साथ शिव की आराधना से जो साधना और शक्ति उन्होंने प्राप्त की, वही शक्ति और भक्ति आज राधा-कृष्ण की अनन्य सेवा में समर्पित है। शिव और राधा-कृष्ण दोनों की भक्ति ने उनके जीवन को अद्वितीय रूप से समृद्ध किया है, और उनके अनुयायियों के लिए यह प्रेरणा का स्रोत है।

शिव भक्ति से राधा जी की भक्ति की ओर प्रेमानंद जी की यात्रा
हालांकि प्रेमानंद जी की शिव भक्ति गहरी थी, लेकिन उनके मन में राधा जी और भगवान कृष्ण के प्रति आकर्षण भी था। जब उन्होंने श्री हित गोविंद शरण जी महाराज का सानिध्य प्राप्त किया, तब उन्हें राधा-कृष्ण की भक्ति का महत्व समझ में आया।
धीरे-धीरे, प्रेमानंद जी की शिव भक्ति ने उन्हें राधा जी की भक्ति की ओर मोड़ दिया। वे समझ गए कि शिव और कृष्ण दोनों की भक्ति एक ही परमात्मा की ओर ले जाती है। इस प्रकार, उन्होंने राधा जी की भक्ति में पूर्ण समर्पण किया, जिससे उनकी आध्यात्मिक यात्रा ने एक नया मोड़ लिया और वे राधा-कृष्ण के प्रेम में डूब गए।
प्रेमानंद जी महाराज: किडनी स्वास्थ्य और संघर्ष
प्रेमानंद जी महाराज ने 17 वर्षों तक किडनी की गंभीर बीमारी का सामना किया। 35 साल की उम्र में उन्हें पेट में दर्द की समस्या हुई, जिसके बाद उन्होंने रामकृष्ण मिशन अस्पताल में इलाज कराया। जांच के बाद पता चला कि उनकी दोनों किडनियां पूरी तरह से फेल हो चुकी हैं और डॉक्टरों ने बताया कि उनकी जिंदगी के केवल 4-5 साल बचे हैं।
हालांकि, उस भविष्यवाणी के बाद भी महाराज जीवित हैं और अभी भी डायलिसिस उपचार ले रहे हैं। उन्हें सप्ताह में तीन बार डायलिसिस कराना पड़ता है, और आश्रम में उनकी स्वास्थ्य की सभी व्यवस्थाएँ की गई हैं। उनके साहस और भक्ति ने उन्हें इस कठिन समय में भी प्रेरित किया है।
स्वामी प्रेमानंद जी महाराज की जीवनी: अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
प्रेमानंद जी महाराज का जन्म अनिरुद्ध कुमार पांडे के नाम से हुआ था।
उनका जन्म 1972 में उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के सरसौल स्थित अखरी गांव में हुआ था।
उन्होंने मात्र 13 वर्ष की उम्र में घर छोड़कर सन्यास लेने का निर्णय लिया।
उन्होंने अपनी आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत भगवान शिव की भक्ति से की थी, विशेष रूप से वाराणसी में।
उनके गुरु का नाम श्री गौरांगी शरण जी है।
उन्होंने राधा-कृष्ण की भक्ति का महत्व समझा जब वे श्री हित गोविंद शरण जी महाराज के सानिध्य में आए।
उन्होंने 35 वर्ष की उम्र में किडनी की गंभीर बीमारी का सामना करना शुरू किया।
डॉक्टरों ने बताया कि उनकी दोनों किडनियां फेल हो चुकी हैं और उन्हें केवल 4-5 साल जीने की संभावना थी।
वे अब भी जीवित हैं और सप्ताह में तीन बार डायलिसिस कराते हैं।
उनका जीवन भक्ति, साहस और कठिनाइयों का सामना करने की प्रेरणा का प्रतीक है, जो सभी भक्तों के लिए एक मार्गदर्शक है।
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